मूर्तियाँ व सद्ग्रन्थ भगवान

मूर्तियाँ व सद्ग्रन्थ भगवान नहीं बल्कि भगवदवतार के प्रतीक मात्र    
आप मूर्ति व सद्ग्रन्थ प्रेमी बन्धुओं से मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस का साग्रह अनुरोध है कि मूर्ति पुजा कोई गलत कार्य नहीं है, फिर भी यही मानव जीवन की अन्तिम उपलब्धि भी नहीं है क्योंकि मूर्तियाँ जो हैं, वे खासकर भगवदवतार तथा उनके प्रति समर्पित भक्त और सेवकों के शारीरिक रूप मात्र की ही होती हैं, न कि भगवद् शक्ति-सत्ता या शक्ति-सत्ता का। इसलिए मूर्तियों को मान्यता देना, आदर-सम्मान देना, पूजा-उपासना का प्रतीक मानना आदि-आदि तो ठीक है, मगर वह ही भगवान है, ऐसा मानकर उसमें कदापि फँसे चिपके नहीं रहना चाहिए। बल्कि मूर्तियों को माध्यम बनाकर भगवत्तत्त्वम् को प्राप्त करने हेतु एक प्रेरक समझते हुये तत्त्वेत्ता सन्त पुरुष के प्रति अग्रसर होना चाहिए। जैसा कि कहा जा रहा है कि भगवदवतार में खासकर दो रूप होता है------
    परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् और वह भगवत्तत्त्वम् जिस शरीर विशेष के माध्यम से लीला कार्य रूप में क्रियाशील हो, उस शरीर का रूप।
इस पुस्तक में पहले ही बताया जा चुका है कि खुदा-गॉड-भगवान का वास्तविक रूप परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप ही है, शरीर तो एक माध्यम मात्र है। हाँ, यह भी सही है कि उस माध्यम शरीर के वगैर भगवत्तत्त्वम् को प्राप्त करना बिल्कुल ही असम्भव बात है। इतना ही नहीं, भक्ति और सेवा भी अवतारी शरीर के माध्यम से ही सम्भव है तथा मुक्ति और अमरता की सुनिश्चितता सर्वतोभावेन समर्पित-शरणागत भक्ति और सेवा के अंतर्गत ही स्थित है। इसलिए निराकार भगवत्तत्त्वम् से कम महत्व उस साकार शरीर विशेष का नहीं है।
कोई वर्तमान भगवदवतार पूर्व के भगवदवतार के मूर्तियों को न तो झूठा कह सकता है और न उसके प्रति भक्ति को बिल्कुल व्यर्थ ही कह सकता है। मगर इतना अवश्य कहेगा कि उसमें चिपकना नहीं चाहिए, बल्कि वर्तमान को अनिवार्यतः जानने-समझने का प्रयास करना चाहिए तथा वर्तमान में ही उस पूर्व को भी जानने-देखने तथा परखने-पहचानने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि पूर्व भगवदवतारी के प्रति किसी भी प्रकार के भक्ति-सेवा-प्रेम का परिणाम ही वर्तमान भगवदवतार की प्राप्ति, जानकारी-दर्शन व परिचय-पहचान है। वर्तमान से ही मुक्ति-अमरता की प्राप्ति सम्भव है। पूर्व भगवदवतार के मूर्ति मात्र की भक्ति-उपासना से मुक्ति और अमरता की प्राप्ति कदापि सम्भव नहीं है, यदि वर्तमान के प्रति समर्पित-शरणागत न हुआ रहा-चला जाय।
मूर्तियाँ तो कुछ अध्यात्मवेत्ताओं की भी होती हैं, मगर उन्हे भक्ति-सेवा-पूजा-उपासना कराने का कोई अधिकार नहीं होता। यह सब अधिकार एकमात्र भगवद् अवतारी को ही होता है।
आजकल अधिकाधिक लोग धर्म के नाम पर सम्प्रदाय स्थित-स्थापित कर करके नाना प्रकार के फित्न: फैलाना – भ्रम-भेद, बैर-भाव और वैमनस्य को प्रचारित करना-कराना तथा फसाद संघर्ष कायम करने-कराने में लगे हैं। कोई मूर्ति को प्रधानता देने में लगा हुआ है तो कोई ग्रन्थों को। जैसे आर्य समाजी वेद को ही परमात्मा मानने में, ईसाई बाइबिल को ही परमेश्वर की वाणी, परमेश्वर जैसा ही मानने में, इस्लाम वाले कुरान शरीफ को अल्लाहतआला की वाणी अल्लाहतआला जैसा ही मानने में और सिक्ख गुरुग्रन्थ साहब को ही गुरु-सद्गुरु मानने में लागे हैं आदि आदि। इतना ही नहीं अपने-अपने अगुओं के प्रति अलग-अलग वर्ग-सम्प्रदाय स्थापित कर-करा करके अपने स्वार्थ को साधने और महत्वाकांक्षा पूर्ति करने में लगे हैं जबकि धर्म इसे स्वीकृति नही देता।
वास्तव में सच्चा धर्म’—- मूर्ति-ग्रन्थ और सम्प्रदाय को कदापि प्रधानता नहीं दे सकता। धर्म के अन्तर्गत प्रधानता तो वर्तमान कालिक सन्त-महात्मा, गुरु और सद्गुरु अथवा अध्यात्मवेत्ता और तत्त्ववेत्ता को ही दिया गया है। ऐसा इसलिए क्योंकि अध्यात्मवेत्ता से आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-सोल-नूर-स्पिरिट-सः ज्योति (भ्रमवश पतनोन्मुखी सोsहं-ज्योति) ज्योति रूप शिव और तत्त्ववेत्ता से परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह-खुदा-गॉड-भगवान के यथार्थतः की जानकारी और तात्त्विकता अद्वैत्तत्त्व बोध की प्राप्ति होती है। साथ ही साथ उस तात्त्विकता में भवमुक्ति, पापमुक्ति, आवागमन से मुक्ति और अमरता का साक्षात बोध तो होता ही है, साक्षात् विराट पुरुष का दर्शन भी प्राप्त होता है और सृष्टि उत्पत्ति-स्थिति-लय प्रलय कैसे यानि किस प्रकार होता है, भी दिखाई देता है।
अतः मूर्ति और ग्रन्थ की मान्यता प्रतीक के रूप में लिया-दिया जा सकता है, अंतिम उपलब्धि के रूप में नहीं। मूर्ति और सद्ग्रंथ भगवत्सत्ता के अस्तित्व को संसार में कायम (स्थित) रखने का माध्यम अवश्य है, लेकिन चिपके रहने का आधार नहीं है। वर्तमान भगवदवतारी में ही भक्ति-सेवा भाव में चिपकना अन्तिम उपलब्धि कारक अर्थात् मोक्ष दायक होता है।
अन्ततः मूर्ति और ग्रन्थों की महत्ता-मर्यादा तो देना ही चाहिए मगर उसमें ऐसा चिपकना नहीं चाहिए कि भूल-भटक कर वर्तमान ही छूट जाय। वर्तमान का छूटना मानव का असफल और व्यर्थ होना है। देखिए श्री कृष्ण महाराज जी का उपदेश –

न ह्यम्मया न तीर्थानि न देवा मृच्छिलामया: ।
ते पुनन्ल रूकालेन दर्शनादेव साध्व: ॥
(श्रीमद्भागवत् महापुराण १०/८४/११)
अर्थात् केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं कहलाते और केवल मिट्टी या पत्थर की प्रतिमाएँ ही देवता नहीं होती; सन्त पुरुष वास्तव में तीर्थ और देवता हैं क्योंकि उनका बहुत समय तक सेवन किया जाय तब वे पवित्र करते हैं, परन्तु सन्त पुरुष तो दर्शन मात्र से ही कृतार्थ कर देते हैं।

नाग्निर्न सूर्यों न च चन्द्रतारका न भूर्जलं खं श्वसनोsथ वांमनः ।
उपासिता भेदकृतो हरन्त्यघं विपश्चितो घ्नन्ति मुहूर्तसेवया ॥  
(श्रीमद्भागवत् महापुराण १०/८४/१२)
अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, तारे, पृथ्वी, जल, आकाश, वायु, वाणी और मन के अधिष्ठातृ-देवता उपासना करने पर भी पाप का पूरा-पूरा नाश नहीं कर सकते; क्योंकि उनकी उपासना से भेद बुद्धि का नाश नहीं होता, वह और भी बढ़ती है। परन्तु यदि घड़ी-दो-घड़ी भी ज्ञानी महापुरुषों की सेवा की जाय तो वे सारे पाप-ताप मिटा देते हैं; क्योंकि वे भेद-बुद्धि के विनाशक हैं।

यस्यात्मबुद्धि कुणपे त्रिधतुके स्वर्ध: कलत्रादिपु भौम इज्यर्ध: ।
यत्तीर्थबुद्धि: सलिले न कहिंचिंजनप्वभिज्ञेषु स एव गोरवरः ॥
(श्रीमद्भागवत् महापुराण १०/८४/१३)
जो मनुष्य वात, पित्त और कफ – इन तीन धातुओं से बने हुये शवतुल्य शरीर को ही आत्मा – अपना मैं, स्त्री-पुत्र आदि को ही अपना और मिट्टी पत्थर, काष्ठ आदि पार्थिव विकारों को ही इष्टदेव मानता है तथा जो केवल जल को ही तीर्थ समझता है—ज्ञानी महापुरुषों को नहीं, वह मनुष्य होने पर भी पशुओं में नीच गधा ही है।
मैं (सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस) मूर्ति और सद्ग्रन्थों का विरोधी नहीं, बल्कि पक्षधर हूँ। मगर उसी सीमा (उत्प्रेरक) तक ही जहाँ तक कि मूर्ति और ग्रन्थ को है। कोई भी सद्ग्रन्थ किसी भी सद्ग्रन्थ मात्र में फँसने-चिपकने की स्वीकृति नहीं देता बल्कि भगवदवतारी के प्रति सर्वतोभावेन समर्पित और शरणागत होने रहने को ही हर प्रकार से उत्प्रेरित करता है। 

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