‘परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम्’ मात्र ही ‘खुदा-गॉड-भगवान’ है

‘परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम्’ मात्र ही ‘खुदा-गॉड-भगवान’ है

आदिम काल से लगायत वर्तमान काल तक यदि सबसे बड़ा रहस्यात्मक अथवा आश्चर्यमय कुछ रहा है तो वह खुदा-गॉड-भगवान ही है। इनके रहस्य और आश्चर्यमयता का सबसे प्रमुख कारण इनकी परम गोपनीयता है। पहले तो इनका धरती पर वास ही नहीं होता है। ये सदा-सर्वदा परम आकाश रूप परमधाम में ही निवास करते हैं। जब-जब धरती पर धर्म की हानि और अधर्म का विकास होता है तब-तब ही सज्जनों की रक्षा, दुर्जनों का नाश और धर्म संस्थापन हेतु भू-मण्डल पर अवतरित हुआ करते हैं। अवतरित होने के बावजूद जिस शरीर के माध्यम से अवतार होता है, उनमें परम गोपनीयता के मर्यादा हेतु ही मानवीय आचरण-व्यवहार से गुजरना होता है, जिसका परिणाम है कि अवतार के बावजूद भी उन्हें जल्दी कोई पहचान नहीं पाता। एक तरफ कहाँ तो सम्पूर्ण ब्रम्हाण्डों का अधिपति मालिक सर्व शक्ति-सत्ता सामर्थ्यवान रूप खुदा-गॉड-भगवान और दूसरी तरफ एक सामान्य मानव जैसे आचरण-व्यवहार करते हुये अपने लीला कार्य को सम्पादित करना। फिर लोगों में आश्चर्य और भ्रम क्यों न हो। होना स्वाभाविक ही है। इतना गोपनीय जो होता है! इतना गोपनीय होता है कि सर्वप्रथम सबसे बड़ी बात तो यह है कि सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड में उसके सिवाय उसको कोई जानता ही नहीं है कि एक दूसरे को जना सके। ऋषि-महर्षि-ब्रम्हर्षि देवी-देवता आदि की बात कौन चलावे, ब्रम्हा–सुरेन्द्र-शंकर तक भी उन्हें नहीं जानते! हो सकता है कि मेरी बात आपको कपोल कल्पित लग रही हो, तो आप प्रमाण भी ले लीजिए। ब्रम्हाजी नारद जी से कह रहे हैं---------

यस्यावतार कर्माणि गायन्ती ह्यस्मदादयः ।
न यं विदन्ति तत्त्वेन तस्मै श्रीभगवते नमः ।।    
अर्थात् हम सब जिनके अवतार की लीलाओं का गान ही करते रहते हैं। उनके तत्त्व को नहीं जानते----उन श्रीभगवान के श्रीचरणों में हम नमस्कार करते हैं।

तमहमजमनन्तमात्मतत्त्वं जगदुदयस्थिति संयमात्मशक्तिम्।
द्युपतिभिरजशक्रशंकरा दुर्रवसितस्तवमच्युतं नतोsस्मि।
(श्रीमद्भागवत महापुराण १२/१२/६६)
‘’ वे जन्म-मृत्यु आदि विकारों से रहित, देशकालादिकृत् परिच्छेदों से मुक्त एवं स्वयं आत्मतत्त्वम् (भगवत्तत्त्वम्) ही हैं। जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करने वाली शक्तियाँ भी उनकी स्वरूपभूत ही हैं, भिन्न नहीं। ब्रम्हा, इन्द्र, शंकर आदि लोकपाल भी उनकी स्तुति करना लेशमात्र भी नहीं जानते। उन्ही एकरस सच्चिदानन्दघन रूप परमात्मा-परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।

देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा
न हि सुविज्ञेयमणुरेष धर्मः।
अन्यं वरं नचिकेता वृणीष्व
मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम्।।
(कठोपनिषद् १/१/२१)
व्याख्या---नचिकेता ! यह आत्मतत्त्वम् अत्यन्त सूक्ष्म विषय है। इसका समझना सहज नहीं है। पहले देवताओं को भी इस विषय में संदेह हुआ था। उनमें भी बहुत विचार-विनिमय हुआ थापरंतु वे भी इसको जान नहीं पाये। अतएव तुम दूसरा वर माँग लो। मैं तुम्हें तीन वर देने का वचन दे चुका हूँअतएव तुम्हारा ऋणी हूँपर तुम इस वर के लिएजैसे महाजन ऋणी को दबाता है वैसे मुझको मत दबाओ। इस आत्मतत्त्वम् विषयक वर को मुझे लौटा दो। इसको मेरे लिए छोड़ दो।
इन उपनिषदों मात्र ही में नहीं, बल्कि गीता और श्रीरामचरित मानस में भी ऐसे ही वर्णित है—

न मे विदुः सुरगणा: प्रभवं न महर्षयः ।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणाम् च सर्वशः ॥
(श्रीमद् भगवद् गीता १०/२)
हे अर्जुन ! मेरे प्रभाव रूप विभूतियों सहित लीला हेतु अवतरित होने को न तो देवता लोग जानते हैं और न तो मेरी उत्पत्ति और प्रभाव को महर्षिगण ही जानते हैं क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदि कारण हूँ।

और श्रीरामचरितमानस में देखिए –
जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे॥
तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा॥

(अयोध्या काण्ड)
जब-जब भी भू-मण्डल पर भगवान का अवतार और सत्यधर्म संस्थापन तथा उसका प्रचार-प्रसार होता है, तब-तब ही आश्चर्यमयता और हाहाकार फैल जाता है। पुनः जब भी भगवान का प्रचार भू-मण्डल पर होता है, तब-तब ही पूरे भू-मण्डल पर आश्चर्य-आश्चर्य ही चारों तरफ होने लगता है। और आश्चर्य हो भी क्यों नहीं ! स्वाभाविक ही है ! एक तो वे पूरे भू-मण्डल पर रहते ही नहीं हैं और जब-जब भू-मण्डल पर सत्य धर्म का प्रायः लोप हो जाता है, तब-तब ही उनको अवतरित होना होता है। चारों तरफ तो असत्य-अधर्म-अन्याय-अनीति का – ज़ोर और जुल्म का बोल-बाला हो जाता है। चारों तरफ अहंकार भरी आवाजें होती रहती हैं। सज्जन वर्ग त्राहिमाम त्राहिमाम त्राहिमाम करते हुए दब-दुब लुक-छिप कर किसी तरह अपना जीवन गुजारते हैं। चारों तरफ से मैं-मेरा और हम-हमार की आवाज गूँजने लगती है। कहीं धनवान हम बड़ा, हम बड़ा में लगा रहता है तो कहीं विद्वान हम बड़ा, हम बड़ा में लगा रहता है, तो कहीं शासक-प्रशासक ही अपने को सर्वेसर्वा घोषित करने में लगा रहता है, और धर्म को ही समूल समाप्त करने पर निरंकुशता पूर्वक कुप्रयास में लग जाता है। उसी बीच में युग-युग में कहीं जाकर एक-एक बार उनका अवतार होता है। उसमें भी एक तरफ तो उनको अपनी परम गोपनीयता के मर्यादा हेतु छिपाव रखना-करना-पड़ता है और दूसरे तरफ असत्य-अधर्म-अन्याय-अनीति का समूल सफाया। एक तरफ मानवीय साधारण आचरण-व्यवहार करना पड़ता है, तो दूसरी तरफ सत्य धर्म की स्थापना हेतु सज्जनों की रक्षा और दुर्जनों के नाश हेतु संघर्षों में भी शरीक हो जाना पड़ता है, फिर सब तरफ आश्चर्य ही आश्चर्य क्यों न हो ! इसीलिए तो उपनिषद में भी कहा गया है –

नायमात्मतत्त्वं प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्य: तस्यै आत्मतत्त्वम् विवृणुते तनूँस्वाम् ॥
(कठोपनिषद १/२/२३)
व्याख्या—जिन परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप खुदा-गॉड-भगवान की महिमा का वर्णन किया जा रहा है, वे न तो उनको मिलते हैं, जो शास्त्रों को पढ़-सुन कर लच्छेदार भाषा में परमात्मतत्त्वं का (परमतत्त्वं का) नाना प्रकार से वर्णन करते हैं, न उन तर्कशील बुद्धिमान मनुष्यों को ही मिलते हैं, जो बुद्धि के अभिमान में प्रमत्त हुये तर्क के द्वारा विवेचन करके उन्हे समझने की चेष्टा करते हैं और न उनको ही मिलते हैं जो परमात्मा या खुदा-गॉड-भगवान के विषय में बहुत कुछ सुनते रहते हैं। वे तो उसी को प्राप्त होते हैं जिसको उनके लिए उत्कट जिज्ञासा होती है। जो उनके बिना नहीं रह सकता। जो अपनी बुद्धि या साधना पर भरोसा न करके केवल उनकी कृपा की ही प्रतीक्षा करता रहता है, ऐसे कृपा निर्भर पर परमात्मा-खुदा-गॉड-भगवान कृपा करते हैं और अपने माया का परदा हटाकर उसके सामने अपना तत्त्वरूप प्रकट कर देते हैं। (नोट:- सत्यता को ध्यान में रखते हुये यहाँ आत्मा के स्थान पर परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् रूप भगवत्तत्त्वम् प्रतिस्थापित किया गया है।)

श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्य:
श्रुण्वन्तोsपि बहवो यं न विद्यु:।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोsस्य लब्धा-
ssश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्ट: ।।
(कठोपनिषद् १/२/७)
व्याख्याआत्मतत्त्वम् की दुर्लभता बतलाने के लिए यमराज ने कहा---नचिकेता ! आत्मतत्त्वम् कोई साधारण सी बात नहीं हैं। जगत् में अधिकांश मनुष्य तो ऐसे हैं जिनको आत्म कल्याण की चर्चा तक सुनने को नहीं मिलती। वे ऐसे वातावरण में रहते हैं कि जहाँ प्रातः जागने से लेकर रात्रि को सोने तक केवल विषय चर्चा ही हुआ करती है जिससे उसका मन आठों पहर विषय-चिन्तन में डूबा रहता है। उनके मनमें आत्मतत्त्वम् सुनने समझने की कभी कल्पना ही नहीं आती और भूले-भटके यदि ऐसा कोई प्रसंग आता है तो उन्हें विषय-सेवन से अवकाश नहीं मिलता। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो सुनना-समझना उत्तम समझकर सुनते तो हैंपरन्तु उनके विषयाभिभूत मन में उसकी (आत्मतत्त्वम्) धारणा नहीं हो पाती या मंद बुद्धि के कारण वे समझ नहीं पाते। जो तीक्ष्ण बुद्धि पुरुष समझ लेते हैंऐसे आश्चर्यमय सत्पुरुष भी एकमेव एकमात्र एक ही होते हैं जो उस आत्मतत्त्वम् का यथार्थ रूप से वर्णन करने वाले समर्थ वक्ता हों एवं ऐसे पुरुष भी कोई बिरले ही होते हैं जिन्होंने ‘आत्मतत्त्वम्’ को प्राप्त करके जीवन की सफलता सम्पन्न की होभली-भाँति समझाकर वर्णन करने वाले सफल-जीवन अनुभवी तत्त्व-दर्शी आचार्य के द्वारा उपदेश प्राप्त करके उसके अनुसार ‘तत्त्वम्’ का साक्षात्कार करने वाले पुरुष भी संसार में कम ही होते हैं। अतः इसमें सर्वत्र ही दुर्लभता है।

इतना ही नहीं, गीता के उपदेश में परमब्रम्ह-परमेश्वर के साक्षात् पूर्णावतार श्रीकृष्ण जी महाराज ने भी तो जानने-देखने को आश्चर्यमय ही कहा है अर्थात् जिसे परमब्रम्ह-परमेश्वर के साक्षात् पूर्णावतार ही आश्चर्यमय कहे हैं, तो और दुनिया को आश्चर्य हो रहा है तो कौन सी बड़ी बात है आश्चर्यमयता तो उसका पहला लक्षण होता है।

आश्चर्यवत् पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्धदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रणोंति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥
(श्रीमद् भगवद् गीता २/२९)
हे अर्जुन ! यह ‘आत्मतत्त्वम्’ बड़ा ही गहन हैइसलिए कोई कोई ही इस ‘आत्मतत्त्वम्’ को आश्चर्य की ज्यों देखता हैकोई महापुरुष इस ‘आत्मतत्त्वम्’ को आश्चर्य की ज्यों बोलता-बताता है और वैसे दूसरा कोई ही आश्चर्य की ज्यों सुनता है और कोई-कोई सुनकर भी इस ‘तत्त्व’ को नहीं जान पाता है।

दुनिया वालों में सबसे बड़ी खलबलाहट तो यह मचने लगती है कि जो कोई भगवान को जानता है, भगवान के प्रति सर्वतोभावेन समर्पित और शरणागत हो जाया करता है। सम्पूर्ण घर-परिवार संसार को प्रायः त्यागकर उसी के भक्ति-सेवा-प्रचार हेतु प्रायः शरणागत हो जाता है – तब स्वार्थी, पारिवारिक, सांसारिक जन अपने टूटते हुये स्वार्थ और महत्त्वाकांक्षा के कारण भगवदवतारी शरीर से ही वैर-विरोध-संघर्ष पर तुल जाते और करने भी लगते हैं। उसके साधारण मानवीय आचरण-व्यवहार को देख करके उसे आदमी मानते हुये जबकि उनका दिल-दिमाग बीच-बीच में भगवान मानने को प्रेरित भी करता रहता है, फिर भी ऊपर से दुर्जनों में अपने वाहवाही और बड़प्पन हेतु टकराव और संघर्ष के मार्ग को ही अपनाकर अपना शान और गौरव मान बैठते हैं, जबकि उन्हे अपना हानि-क्षति-परेशानी दिखाई देता रहता है और सज्जन व्यक्तियों द्वारा बार-बार सुझाव भी मिलता रहता है। फिर भी इन पर यह मुहावरा चरितार्थ होने लगता है कि “विनाशकाले विपरीत बुद्धि” अर्थात् नाश मनुष्य पर छाता है, विवेक पहले हट जाता है।

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