ॐ भी भगवान नहीं

ॐ भी भगवान नहीं  

कर्मकाण्ड का अभीष्ट ॐ, ब्रम्ह-शक्ति हँसो से उत्पन्न होने के कारण ब्रम्ह-शक्ति रूप ज्योतिर्मय अवश्य होता है मगर ब्रम्ह-शक्ति रूप होने के बावजूद, भी वह खुदा-गॉड-भगवान नहीं कहला सकता, क्योंकि खुदा-गॉड-भगवान तो ॐ के पिता उत्पत्ति कर्ता हँसो और सोsहँ के पिता उत्पत्ति कर्ता परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् ही है। इस भगवत्तत्त्वम् से ही सोsहँ की उत्पत्ति और हँसो से ॐ की उत्पत्ति सृष्टि के अन्तर्गत स्रेष्टिक विधान या ब्रम्हाण्डीय विधान से होती रहती है।
चूंकि सृष्टि की उत्पत्ति में ॐ की प्रथम और अहम् भूमिका होती है। इसलिए ब्रम्ह-शक्ति (हँसो) और परमब्रम्ह (भगवत्तत्त्वम्) के नाजानकार अर्थात् अध्यात्म और तत्वज्ञान से रहित जितने भी कर्म प्रधान मानव हैं, केवल वे ही ॐ को ब्रम्ह-शक्ति रूप और ब्रम्ह-शक्ति को भगवत्त-शक्ति-सत्ता रूप मानने वाली धारणा के अन्तर्गत नाजानकारी और नासमझदारीवश ॐ को ही ब्रम्ह-शक्ति और भगवत्तशक्ति-सत्ता भी मानते और वैसा ही व्यवहार देते हुये ॐ को ही भगवान मानना प्रारम्भ कर देते हैं जबकि वास्तव में ऐसा है नहीं। मुख्यतः ब्रम्हाण्ड में तीन विभाग हैं-----

१ कर्म विभाग---जिसमें कर्म की प्रधानता और भोग ही जिसकी अन्तिम उपलब्धि हो, वह कर्म विभाग है। इसमें ॐ सहित मंत्रों के जप मात्र की ही प्रधानता होती है।

२ योग-साधना अथवा अध्यात्म विभाग---- जीव का आत्मा या सः ज्योति से मिलने-जुलने और उस पर स्थित रहने की क्रिया-प्रक्रिया ही योग-साधना अथवा अध्यात्म है; जिसमें योग-साधना अथवा आध्यात्मिक क्रिया की प्रधानता होती है और आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-शिव का दर्शन व तदात्म्यभाव उसकी अन्तिम उपलब्धि होती है।

३ तत्त्व विभाग------संसार-शरीर-जीव-आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-शिव और परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह-भगवान् से सम्बंधित संपूर्ण विधान समाहित हो, जिसमें, वह है तत्त्व विभाग जिसके अन्तर्गत परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् की प्रधानता और मुक्ति-अमरता रूप मोक्ष की उपलब्धि होती रहती है। वास्तव में इसी इसी धारणा को भगवदीय धारणा भी कहते हैं। इसमें परम सत्य, सम्पूर्णता और सर्वोच्चता की भी मुक्ति-अमरता के साक्षात् बोध सहित सहज ही प्राप्ति होती है।
इन उपर्युक्त तीन प्रकार की धारणाओं में ही प्रायः सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड का सम्पूर्ण विधान समाहित है, जिसमें पहली धारणा जो कर्मकाण्ड की अथवा कर्म प्रधान की है, का अभीष्ट ॐ है। मूर्ति व ग्रन्थ वादी धारणा भी, इसी पहली धारणा के अन्तर्गत ही होती रहती है। दूसरी धारणा जो अध्यात्म प्रधान है, उसका अभीष्ट सः ज्योति (हँसो ज्योति) रूप आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-सोल-नूर-स्पिरिट ज्योतिर्मय शिव है और तीसरी धारणा जो तत्त्ववादी धारणा है और हर प्रकार से तत्त्व प्रधान है, का अभीष्ट परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह-खुदा-गॉड-भगवान तथा अद्वेत्तबोध रूप मुक्ति और अमरता के साक्षात् बोध का है।

अन्ततः बतला दूँ कि ॐ तो भगवान है ही नहीं, ॐ के पिता रूप ब्रम्ह-शक्ति रूप हँसो-ज्योति भी भगवान नहीं है। भगवान तो एक मात्र केवल परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् मात्र ही है। ये बातें मैं (सन्त ज्ञानेश्वर सवामी सदानन्द जी परम हंस) न तो किसी स्वार्थ और महत्वाकांक्षा के अन्तर्गत कह-लिख रहा हूँ और न तो किसी प्रकार के अनुमान पर, बल्कि शिक्षा (Education) स्वाध्याय (Self Realization), योग-साधना या अध्यात्म (Spiritualization) और तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान-पूर्णज्ञान (Suprem KNOWLEDGE) रूप विद्यातत्त्वम् के चारों पद्धतियों के माध्यम से सैद्धान्तिक, प्रायौगिक और आभ्यासिक (अनुभव और बोध) के द्वारा यथार्थतः जान, साक्षात् देख और बात-चीत करते-कराते हुये पृथक्-पृथक् रूप में संसार-शरीर-जीव-ईश्वर और परमेश्वर का सपष्टतः परिचय-पहचान करते-कराते हुये ही कह-लिख रहा हूँ। यदि कोई जिज्ञासु भाव से इन्हें पाना-जानना देखना-परखना-पहचानना चाहे, तो जिज्ञासा, श्रद्धा और भगवद् समर्पण-शरणागत भाव से पा-जान-देख व बातचीत करते हुये परिचय-पहचान सहत परख-परीक्षण कर करा सकता है। परख-पहचान के पश्चात् हर स्तर पर सत्य ही होने पर स्वीकार करें अन्यथा नहीं। 

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