द्वैध स्थिति का जवाब क्या है ? जनमानस से कैसा वर्ताव हो ?

द्वैध स्थिति का जवाब क्या है ? जनमानस से कैसा वर्ताव हो ?

जनमानस भी बड़ी विचित्र है। भगवान को जानने-पाने वाला भगवान के पीछे जब चल देता है, तब ये सब कहना शुरू कर देते हैं कि वाह ! वे कौन से भगवान हैं कि भगवान जानो और घर-परिवार छोड़कर भगवान के पीछे ही चल दो ! भगवान जानो और सब कुछ उनको समर्पित कर दो ! भगवान जानो और उनके पीछे दीवाना हो जाओ ! नहीं चाहिए हमको ऐसा भगवान ! भगवान अपनी भगवत्ता लिए रहें। और जब भगवान को जानने वाले अर्थात् तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान को पाने वाले को भगवदवतारी रूप सद्गुरु घर-परिवार में रहने हेतु वापस भेज देता है कि वहीं रहते हुये भक्ति-सेवा करो और जब वह भक्त सेवक सहज भाव में अपने विहित कर्मों को करता हुआ भक्ति-सेवा से गुजरने लगता है, तब ये कहने लगते हैं कि वाह ! ई कौन भगवान है कि भगवान पाया और हम लोगों की तरह से ही इसी घर-परिवार या संसार में कचर-पचर करना शुरू कर दिया ! ई कौन सा भगवान है भाई ! कि भगवान पाने के बाद भी आदमी घर-परिवार में ही फँसा पड़ा हुआ है। इसका माया मोह क्यों नहीं ख़त्म हो जाता ? ई कौन सा भगवान है भाई ! जैसे हम खा पी रहे हैं, वैसे ही ये भी खा पी रहे हैं ! वैसे ही इनके भक्त भी खा पी रहे हैं ! हम लोगों जैसे ही खाने-पीने घूमने-चलने-फिरने में ही लगे हैं ! ऐसा भगवान हम लोगों को नहीं चाहिए ! अर्थात् दोनों स्थितियों में किसी तरह की गुंजाइश नहीं। 


पाठक बन्धुओं ! जरा सोचें कि इन उपर्युक्त द्वैध स्थिति-परिस्थिति में भगवान जनमानस में कैसा वर्ताव करे ? अपनाये तो भी नफरत, वापस करे तो भी नफरत। अपनाये तो भी दोष, वापस करे तो भी दोष ! आप ही जरा सोच समझ कर बतावें कि आप ही यदि भगवान या सद्गुरु होते तो क्या करते ? आप परीक्षण करना चाहें तो स्वयं परीक्षण कर सकते हैं कि जब कोई साधु-योगी-महात्मा मिले तो उससे कहिये, आप क्यों योगी-यति-साधु-महात्मा बनें हुये हैं ? भगवान कहीं किसी को मिलते हैं कि आपको मिलेंगे ? अरे ! अच्छी शरीर मिली है, खूब कमाना, खूब भोगना चाहिए। अरे ! भगवान कौन चीज है जो किसी को मिलें ! इस पर वह योगी-यति-साधु-महात्मा गरुड़-नारद-ध्रुव-प्रह्लाद-हनुमान-शबरी-उद्धव-अर्जुन-गोपियों आदि-आदि दस-पाँच उदाहरण आपके समक्ष पेश करके या कहना शुरू कर देंगे कि “भगवान क्यों नहीं मिलता है ! जरूर मिलता है ! तुम नास्तिक हो, भगवान जरूर मिलता है ! हम भी वैसा करते रहेंगे तो हमें भी भगवान जरूर मिलेगा। तुम्हें नहीं करना है तो तुम अपना काम करो। हमारे भक्ति में बाधा मत डालो !” अब उसी योगी-यति-साधु-महात्मा को दो-चार दिन भुला भटका कर किसी दूसरे से कहलवाइये कि हे योगी-यति-साधु-महात्मन् ! आप जिस भगवान को खोजने पाने के लिए योगी-यति-साधु-महात्मा बने हुये हैं, वही भगवान अमुक स्थान पर अमुक सन्त-महात्मा के माध्यम से प्राप्त हो रहा है। तब इस पर वही साधु महात्मा जी बोल पड़ेंगे कि “चल चल ! ऐसे वैसे बहुत भगवान घूमा करते हैं ! भगवान मिलना इतना आसान है क्या ? कहीं किसी को भगवान मिलता है ? अमुक आदमी तपस्या करते-करते मर गया; अमुक आदमी खोजते-खोजते अपना विचार बदल दिया; कहाँ किसी को भगवान मिला ? ग्रन्थों में लिखा है कि जनम-जनम मुनि जतन कराहीं,  अन्त राम कहि आवत नाहीं ! पुनः जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे॥ तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा॥ इस तरह नाना प्रकार के उदाहरण प्रस्तुत करके भगवत् प्राप्ति के विरुद्ध अनर्गल बात बोलने लगेंगे कि कोई ढोंगी होगा, कोई पाखण्डी होगा, भला कहीं भगवान मिलता है ! ”  


अब आप ही बताइये कि ऐसे द्वैध और प्रतिकूल स्थिति-परिस्थिति में जब जनमानस रहेगा तो ऐसे जनमानस के साथ कैसा व्यवहार किया-दिया-लिया जाय ? क्या यह साधारण सी बात है ? अन्ततः आपको बतला दूँ कि इन उपर्युक्त द्वैध अथवा अनुकूल और प्रतिकूल स्थितियों-परिस्थितियों का कारण भी खुदा-गॉड-भगवान के परिचय-पहचान में एक महत्वपूर्ण स्थान लेता है। इस प्रकार भू-मण्डल पर प्रायः भगवान की जानकारी-प्राप्ति-दर्शन और भक्ति सेवा आदि सब ही दुर्लभ और दुरूह होता चला जाता है और जब सुलभ व आसान होने लगता है तो लोगों में अविश्वसनीयता और आश्चर्यमयता उत्पन्न होने लगती है। जब दुरूह और दुर्लभ कहकर कठिनाई उत्पन्न कर दिया जाय तो भी ठीक नहीं कि बाप रे ! यह तो बड़ा दुर्लभ है ! हम कैसे पा सकते हैं ! हमको नहीं मिल सकता ! हम तो पापी हैं, नीच हैं, नाना प्रकारके दोषों से युक्त हैं ! जरा सोचिए कि उन्हे यह कौन समझावे कि भगवान पाप नाशक और पापी उद्धारक होता है। नीच को ऊँच बनाना और दीन-गरीबों को दीनता और गरीबी से उबारने वाला भगवान दीन-बन्धु ही है, अमीर बन्धु नहीं ! वह पतितों को पावन करने वाला पतित पावन भी है। पुण्य उद्धारक और पुण्य सुधारक मात्र नहीं ।

पुनः देखिये कि जब भगवान की जानकारी-प्राप्ति-दर्शन और भक्ति-सेवा आदि सुलभ और आसान कर दिया जाता है तो लोग अविश्वास करने और आश्चर्य में पड़ने लगते हैं। कहते हैं, “वाह ! क्या इतना आसानी से भगवान मिल जाता है? क्या आपको इतनी जल्दी भगवान सुलभ हो गया है ! नहीं, नहीं, इसमें कोई राज होगा ! कोई रहस्य होगा ! निश्चित ही इसमें कोई धोखा-धड़ी होगी ! नहीं तो इतनी आसानी से कहीं भगवान सुलभ होता है ! हो सकता है कि इसमें कोई जादू-मन्तर हो या मिस्मरिज़्म-हिप्नोटिज़्म हो !” अब इन लोगों को यह कौन समझावे कि मिस्मरिज़्म या हिपनोटिज्ममें परमात्मा-परमेश्वर या खुदा-गॉड-भगवान की तो बात ही कौन करे, आत्मा-ईश्वर या नूर-सोल-ब्रम्ह-ज्योतिर्मय शिव को भी जनाने या दिखाने की क्षमता नहीं होती है। इतना ही नहीं सारी दुनिया के अन्तर्गत कोई भी ऐसा जादू-मन्तर-मिस्मरिज़्म-हिप्नोटिज़्म नहीं अर्थात् दुनिया की किसी भी जादू-मन्तर-मिस्मरिज़्म-हिप्नोटिज़्म में इतनी क्षमता नहीं कि वह जीव-रूह-सेल्फ तक कोक ही जना-दिखा दे, आत्मा और परमात्मा या ईश्वर और परमेश्वर या ब्रम्ह और परमब्रम्ह या नूर और अल्लाहतआला या सोल और गॉड या शिव और भगवान तो बहुत-बहुत-बहुत ही दूर की बात है।

अन्ततः बतला दूँ कि न तो मूर्ति और सद्ग्रन्थ ही भगवान है और न ॐ ही। यहाँ तक कि शिवोsहँ-सोsहँ-हँसो-ज्योति-शिव भी भगवान नहीं है। खुदा-गॉड-भगवान तो एकमात्र परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् ही है। इसी परमतत्त्वम् से पतनोन्मुखी रूप में क्रमशः सः पुनः अहँ जिनका संयुक्त रूप सोsहँ; उत्पन्न और स्थित होता रहता है। यह क्रम सृष्टि के अन्त तक अनवरत रूप में होता रहता है। और इसी का उर्ध्वमुखी रूप है हँसो। यह हँसो ही संयुक्त रूप से जीवात्मा और साथ ही साथ पृथक रूप में ब्रम्ह-शक्ति या शिव-शक्ति आदि-आदि कहलाता है। परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं लगाया जाना चाहिए कि यही हँसो ही खुदा-गॉड-भगवान या भगवत्तत्त्वम् है। ॐ का पिता हँसो और सोsहँ-हँसो का पिता परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् ही वास्तव में परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह-खुदा-गॉड-भगवान है और सोsहँ-हँसो तो उसका पुत्रवत् अंशरूप मात्र है।
--------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस

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