भगवदवतरण कैसे?

भगवदवतरण कैसे?  


यस्यावतार कर्माणि गायन्ति ह्यस्मदादयः ।
न यं विदन्ति तत्त्वेन तस्मै श्रीभगवते नमः ।।
हम सब जिनके अवतार की लीलाओं का गुणगान ही किया करते हैं, किन्तु उनके तत्त्व को नहीं जानते-----उन श्रीभगवान के श्री चरणों में हम नमस्कार करते हैं।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
(श्री मद्भगवद्गीता ४/७)
हे भारत जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती हैतब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात् साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ।।
(श्री मद्भगवद्गीता ४/८)
क्योंकि साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पापकर्म करने वालों दुष्टों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में अवतरित होते रहता हूँ।

जन्म कर्म च मे परमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोsर्जुन।।
(श्री मद्भगवद्गीता ४/९)
इसलिये हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म परम अर्थात् विलक्षण और अलौकिक हैं-----इस प्रकार जो मनुष्य इसे तत्त्व से जान लेता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता अपितु मुझे ही प्राप्त होता है।
(सच्चाई हेतु दिव्य के स्थान पर परम प्रतिस्थापित)

भगवदवतार होता कैसे है?          
अवतार शब्द का अर्थ अथवा भावार्थ ऊपर से नीचे को उतरने से सम्बन्धित है। अर्थात् परम आकाश रूप परमधाम से परमतत्त्वं रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह-खुदा –गॉड-भगवान-अकाल पुरुष रूप परमपुरुष का भू-मण्डल पर उतरना और किसी शरीर विशेष को धारण कर संयुक्त रूप में (परमपुरुष और शरीर) लीला-कार्य हेतु क्रियाशील होना-रहना ही अवतार कहलाता है। ऐसे उस शरीर धारी परमपुरुष रूप खुदा-गॉड-भगवान मात्र को ही भगवदवतार कहते हैं। अहँ-सोsहँ तो सहज भाव से ही प्रत्येक जीवित प्राणी में खासकर मानव में तो सदा-सर्वदा जीवित रहने तक होता ही रहता है फिर यह अहँ-सोsहँ भगवान कैसे कहला सकता है और यह अहँ-सोsहँ मात्र वाली शरीर भी भगवदवतार कैसे कहला सकती है, क्योंकि सभी जीवित शरीर ही अहँ-सोsहँ की है तो क्या सभी जीवित शरीरों को ही भगवान का अवतार मान लिया जाय? नहीं! कदापि नहीं!
अहँ और सोsहँ की तो जितनी भी शरीर हैं, थोड़ा-बहुत अन्तर कर करा करके सब ही उतने रूपों में हैं, मगर खुदा-गॉड-भगवान सृष्टि के पूर्व भी एकमात्र एक ही था। सृष्टि के अन्तर्गत भी एकमात्र एक ही है। और सृष्टि के पश्चात् भी वह एकमात्र एक ही रहने वाला भी होता है। अर्थात् परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह-अकालपुरुष-सत्पुरुष-परमपुरुष-अल्लाहतआला-यहोवा-ताओ-खुदा–गॉड-भगवान आदि-आदि शब्दों से उच्चारित होने वाला परम शक्ति-सत्ता सामर्थ्यरूप वह परमतत्वम् सर्वथा और सर्वदा एकमात्र एक ही था, एकमात्र एक ही है और आगे भी एकमात्र एक ही रहने वाला भी है। इसलिए इस भू-मण्डल पर जब भी वह अवतरित होकर कोई शरीर अधिग्रहीत करता है, तब भी वह एक ही शरीर के माध्यम से अपने लीला कार्यों का संपादन करता है, न कि दो–चार दस-बीस शरीर धारण करके।
वह परमतत्त्वम् रूप परमात्मा-खुदा-गॉड-भगवान अद्वैत (Without Second) है जिसमें दूसरा शब्द ही नहीं है। भगवदवतार के रूप में भी ऐसा ही है। जैसे सत्ययुग में भगवदवतारी श्रीविष्णु जी महाराज एक ही थे, दो नहीं, जबकि उस समय भी अहँ वाले स्वाध्यायी सप्तर्षियों गणेश-यमराज-इन्द्र-ब्रम्हा आदि और हँसो-ज्योति वाले अध्यात्मवेत्ता अनेकानेक थे। जैसे शंकरजी, सनक, सनन्दन, सनातन, सनतकुमार, नौ योगेश्वर, नारद आदि-आदि। इसी प्रकार त्रेतायुग में भी भगवदवतारी श्री रामचन्द्र जी महाराज एक ही एक थे, जबकि अहँ वाले स्वाध्यायी बहुतायत संख्या में तथा हँसो-ज्योति वाले वशिष्ठ, अष्टावक्र, याग्वल्क्य, शंकर सनकादि आदि अनेकानेक थे। पुनः इसी प्रकार द्वापरयुग में भी भगवदवतारी श्री कृष्ण जी महाराज एक ही एक थे जबकि अहँ वाले कृपाचार्य, द्रोणाचार्य आदि-आदि बहुतायत संख्या में तथा हँसो-ज्योति वाले व्यास, परासर, शौनक, अंगिरस, अथर्वा, शुकदेव आदि-आदि अनेकानेक रह हैं।
वर्तमान में भी वही परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस के साथ पूरे भू-मण्डल पर एक ही रूप में क्रियाशील है जबकि अहँ वाले शंकराचार्य महामण्डलेश्वर गण आदि रामायणी, गीताध्यायी, स्वाध्यायीजन तथा सोsहँ---ज्योति वाले श्रीबालयोगेश्वर जी, सतपाल, आनन्दमूर्ति जी आदि-आदि बहुतायत संख्या में हैं। वर्तमान के प्रति यदि किसी को संदेह-शंका हो, तो आकर जान-देख परिचय-पहचान करते हुये सद्ग्रंथीय प्रमाणों के आधार पर परख-परीक्षण कर-करा सकता है। अतः सर्वदा और सर्वथा सत्ययुग से लगायत कलियुग तक भगवान और भगवदवतार एक ही एक रहा है और एक ही एक है भी। भविष्य में भी जब कभी भी भगवदवतार होगा, तो वह भी एक ही एक होगा-रहेगा।
जो अहँ-सोsहँ सदा-सर्वदा ही सभी जीवित ही सभी जीवित शरीरों के साथ होता ही होता है फिर अहँ-सोsहँ वाली शरीर को भगवदवतार कैसे कहा जा सकता है? अर्थात् नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अवतार शब्द तो अवतरण प्रधान है। परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम्-गॉड-अलम् जो सभी शरीरों में रहना तो दूर रहा, इस भू-मण्डल पर ही नहीं रहता तथा जिसका निवास स्थान परम आकाश रूप परमधाम-विहिश्त-पैराडाइज है। वहाँ से वह इस भू-मण्डल पर जब अवतरित होकर किसी शरीर विशेष को ग्रहण करता है तो वह अवतरित होने वाला परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम्-गॉड-अलम् ही खुदा-गॉड-भगवान कहलाता है। वही खुदा-गॉड-भगवान जिस शरीर विशेष में अवतरित होकर इस भू-मण्डल पर क्रियाशील होता है, केवल एकमात्र एकमेव एक वह शरीरधारी परमतत्त्वम्-गॉड-अलम् ही भगवदवतार कहलाता है। यदि उसके निवास स्थान जिसे परम आकाश (परमधाम) कहते हैं, के विषय में विश्वास नहीं हो तो आप निम्नलिखित प्रमाणों को देख सकते हैं-------
      
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्
अस्मिन देवां अधि विश्वेनिषेदुः।
यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति
य इत् तद् विदुस्ते इमे समासते।।
(श्वेताश्वतरोपनिषद् ४/८)
(ऋग्वेद म॰१ सू॰१६४ मन्त्र ३९ तथा अथर्ववेद ९/१५/१८)


व्याख्या---परमब्रम्ह-परमेश्वर के जिस अविनाशी परम आकाश रूप परमधाम में समस्त देवगण अर्थात् उन परमात्मा के पार्षदगण उन परमेश्वर की सेवा करते हुये निवास करते हैंवहीं समस्त वेद भी पार्षद के रूप में मूर्तिमान होकर भगवान् की सेवा करते हैं। जो मनुष्य उस परमधाम में रहने वाले परमब्रम्ह पुरुषोत्तम को नहीं जानता और इस रहस्य को भी नहीं जानता कि समस्त वेद उन परमात्मा की सेवा करने वाले उन्हीं के अंगभूत पार्षद हैं वह वेदों के द्वारा क्या प्रयोजन सिद्ध करेगाअर्थात् कुछ सिद्ध नहीं करेगा। परन्तु जो मनुष्य उस परमात्मा को ‘तत्त्वत: जान लेते हैवे तो उस परमधाम में ही सम्यक् प्रकार से (भली-भाँति) प्रविष्ट होकर सदा के लिए ही स्थित हो रहते हैं। 


 न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम् ॥
(श्रीमद् भगवद् गीता १५/६)
उस परमपद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता हैन चन्द्रमा और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकता है तथा जिस परमपद को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसार में नहीं आते हैं वही मेरा परमधाम है।

एक अनीह अरूप अनामा ।
आज सच्चिदानन्द परधामा ॥
(श्रीराम चरित मानसबालकाण्ड)
परमात्मा एक हैअनिच्छित हैनाम-रूप से रहित हैअजन्मा हैसच्चिदानन्दघन है और परमधाम का वासी है।

बाइबिल में यह बात आई है कि यीशु ने कहा, ‘’मेरे आसमानी पिता से एक ज्योति छिटकी जो मुझमें आकर समाहित हो गयी और मैं उसके पुत्र के रूप में सभी लोगों को अपने पिता के तरफ जाने के लिए मार्ग प्रसस्त करने लगा तथा उन लोगों को यह कहने लगा कि जो यहाँ मेरा सेवा-सहयोग करेगा, मैं भी अपने परमपिता के यहाँ उसका वैसे ही सेवा-सहयोग करूँगा।‘’

आदि में ‘शब्द’ था, ‘शब्द’ परमेश्वर के साथ थाशब्द(वचन) ही परमेश्वर था। 
-------- यूहन्ना १/१
शब्द (वचन) देहधारी हुआ। वह हम लोगों के बीच डेरा किया। वह सत्य और अनुग्रह से पूर्ण था। 
--------- यूहन्ना १/१४ 
इससे यहाँ स्पष्ट होता है कि यीशु के परमपिता रूप सुप्रीम लॉर्ड रूप गॉड फादर आसमानी पैराडाइज़ (PARADISE) ETERNAL ABODE वाले हैं जो किसी शरीर में नहीं बल्कि परमआकाश में ही रहते हैं।

इसी प्रकार कुरान शरीफ़ के अनुसार भी मोहम्मद साहब के पास भी सातवें आसमान से अल्लाहतआला के पास से खुदाई सन्देश लेकर हजरत जिब्रील अमीन आया करते थे। अल्लाहतआला से सम्बंधित सातवें आसमान की बात कुरान शरीफ़ में बार-बार आई है जिसे बिहिश्त का बाग भी कहा गया है। इससे यहाँ भी यह स्पष्ट हो जाता है कि मोहम्मद साहब के रहीमु-करीमु परवरदिगार अल्लाहतआला बिहिश्त में ही रहते हैं, न कि इस जमीन पर या किसी के दिल या जिस्म में। कुरान शरीफ़ में भी ऐसा स्पष्ट संकेत है कि कयामत के समय अल्लाहतआला इस जमीन पर हाजिर-नाजिर होगा अर्थात् अवतरित होगा और उसी का सच्चा राज्य होगा और वही सिंहासन तख़्त पर विराजमान होकर असत्य-सत्य का न्याय करेगा।
     
श्रीराम कृष्ण परमहंस (बेलूर मठ वाले) ने अपने एक अनुयायी मास्टर से वार्ता करते हुये अवतार के सम्बन्ध में स्पष्टतः संकेत दिया है कि जब विचार किया जाता है तो एक तरह का ज्ञान उत्पन्न होता है और उसे ही जब ध्यान के माध्यम से देखा जाता है तो वह दूसरा ही दिखायी देता है, मगर वे जब खुद अवतरित होकर अपने विषय में जना देते हैं तब वे और ही होते हैं।
भगवान अवतरित होकर जब अपने अवतार प्रक्रिया को कि अवतार कैसे होता है, साथ ही साथ अपने मनुष्य लीला को भी जना-दिखला-समझा देते हैं, तब उनके जानने-पाने के बारे में किसी भी प्रकार के विचार की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। इतना ही नहीं किसी के समर्थन और स्वीकृति (गवाही) की भी आवश्यकता नहीं रह जाती।

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